Sita Navami: आज भी श्रीराम माता सीता के साथ इस भवन में आते हैं
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    Sita Navami: आज भी श्रीराम माता सीता के साथ इस भवन में आते हैं

    कैकेयी के जीवन का एक पहलू यह भी है कि वह सीता जी को अपनी सगी बहू से भी ज्यादा स्नेह करती थीं। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है अयोध्या स्थित ‘कनक मंडप’। जैसा कि नाम से ही ज्ञात होता है कि यह भवन कभी सोने से निर्मित रहा होगा।
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    बताया यह भी जाता है कि महाराजा दशरथ कैकेयी से इतने प्रभावित थे कि वह उन्हें कनु, कनक आदि नाम से भी पुकारते थे। इसलिए इसका नाम कनक महल पड़ा। कनक या कनु के बारे में किसी प्रकार का उल्लेख रामायण, रामचरित मानस या अयोध्या से जुड़ी कहानियों में नहीं मिलता।
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    बताया यह भी जाता है कि महाराजा दशरथ कैकेयी से इतने प्रभावित थे कि वह उन्हें कनु, कनक आदि नाम से भी पुकारते थे। इसलिए इसका नाम कनक महल पड़ा। कनक या कनु के बारे में किसी प्रकार का उल्लेख रामायण, रामचरित मानस या अयोध्या से जुड़ी कहानियों में नहीं मिलता।
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    आमतौर पर कैकेयी के चरित्र को आदर की दृष्टि से नहीं देखा जाता परन्तु महारानी कैकेयी के हृदय में राम के लिए अपने पुत्र भरत से अधिक स्नेह और ममता थी, जिसका जीवन्त उदाहरण कनक भवन है।
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    अपने इस प्राण प्रिय महल को कैकेयी ने सीता जी के जनकपुर से अयोध्या में पहली बार ससुराल आगमन पर मुंह दिखाई में दिया था। आज भी यह परंपरा उत्तर प्रदेश, बिहार रादि राज्यों में है जहां सास बहू को मुंह दिखाई देती है।
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    यह विशाल एवं भव्य भवन वर्तमान में अयोध्या के सर्वश्रेष्ठ दर्शनीय स्थलों में से एक है। यहां प्रतिदिन सैंकड़ों लोग पहुंच कर अपने आपको धन्य मानते हैं। कैकेयी द्वारा मुंह दिखाई में दिए जाने के बाद यह सीता जी का अंत:पुर बन गया।
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    इसके परिसर में स्थित दिव्य शयनागार और सीता-राम जी का शयन कुंज भी आकर्षक है। संत समाज मानता है की आज भी श्रीराम माता सीता के साथ इस भवन में आते हैं।
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    श्रद्धा और विश्वास के साथ जुड़े इस मत को वे सभी श्रद्धालु अनुभव करते हैं जो कनक भवन में विचरण करने आते हैं। बताया जाता है कि अयोध्या के उजड़ने बसने के साथ-साथ यह भी समय-समय पर प्रभावित होता रहा है।
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    धर्म ग्रंथों और यहां से प्राप्त शिलालेख संख्या 1 से स्पष्ट होता है कि भगवान राम के पुत्र कुश ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। बाद में ध्वस्तप्राय: रहे इस भवन का द्वापर में जरासंध के वधोपरांत भगवान श्री कृष्ण ने रुक्मिणी सहित अयोध्या पहुंचने के बाद निर्माण कराया।
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    इसकी प्राचीनता को कायम रखते हुए इसमें बहुमूल्य धातुएं लगवाई गईं। फिर विक्रमी संवत 444 में महाराजा समुद्रगुप्त द्वारा इसका निर्माण कराया गया। यह निर्माण काफी समय तक विद्यमान रहा।
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    फिर जब अयोध्या पर हमले शुरू हुए, तब कभी हूणों ने तो कभी शकों ने, तो कभी विदेशी आक्रमणकारियों ने इसे भी लूटा और ध्वस्त कर दिया। ऐतिहासिक प्रमाण बताते हैं कि विदेशी आक्रमणकारी सैयद मसूद सालार गाजी का आक्रमण इसके लिए सबसे ज्यादा घातक सिद्ध हुआ।