Bhojeshwar Temple- अद्भुत शिल्पकला का प्रतीक भोजपुर का शिव मंदिर
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    Bhojeshwar Temple- अद्भुत शिल्पकला का प्रतीक भोजपुर का शिव मंदिर

    मध्य प्रदेश का पुरातात्विक वैभव विश्व भर के पुरातन और पर्यटन प्रेमियों को आकर्षित करता रहा है। पुरा संपदा प्रदेश की विशेषता मानी जाती है।
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    Bhojeshwar Temple- अद्भुत शिल्पकला का प्रतीक भोजपुर का शिव मंदिर

    खजुराहो, ओरछा, महेश्वर, ग्यारसपुर, उदयगिरि तथा माडंव के मंदिर और स्मारक विश्व प्रसिद्ध हैं। इसी तरह भोजपुर का शिव मंदिर भोजपुर को एक विशेष सांस्कृतिक केंद्र के रूप में प्रतिष्ठापित करता है।
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    Bhojeshwar Temple- अद्भुत शिल्पकला का प्रतीक भोजपुर का शिव मंदिर

    भोजपुर के मध्ययुगीन मंदिर की शिल्प तथा स्थापत्य कला निराली है। रायसेन जिले की गोहरगंज तहसील में ग्यारहवीं सदी में परमार शासक राजा भोज (1010-1055 ईस्वी) की शख्सियत की पहचान कराने वाले इस शिव मंदिर के निकट एक प्राचीन बांध के अवशेष आज भी दृष्टव्य हैं।
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    यह एक संयोग ही है कि मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की उत्तर, दक्षिण और पूर्व दिशाओं में स्थित तीन बड़े पुरातात्विक महत्व के स्थान रायसेन जिले में हैं।
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    इनमें से दो विश्व धरोहर स्थल भी हैं। सांची और भीमबेटका को यह गौरव हासिल है लेकिन तीसरा स्थान भोजपुर भी किसी विश्व धरोहर से कम नहीं।
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    यहां विश्व प्रसिद्ध और संसार के सबसे बड़े शिवलिंग के दर्शन के लिए देशी-विदेशी पर्यटक पहुंचते हैं। शिवरात्रि और मकर संक्रांति के दिन मेला भी लगता है, यही नहीं मध्य प्रदेश सरकार की ओर से सालाना भोजपुर उत्सव भी आयोजित होता है।
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    वर्ष 2010 राजा भोज द्वारा स्थापित शिव मंदिर और भोजपुर के लिए ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण वर्ष था जब निकट स्थित प्राचीन स्थल आशापुरी की पुरातात्विक धरोहर के संरक्षण की पहल हुई।
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    वेत्रवती (बेतवा) के निकट भोजपुर का शिव मंदिर पर्यटकों को बरबस ही आकर्षित कर लेता है।
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    प्रदेश के पूर्वी मालवा क्षेत्र में भोपाल, रायसेन एवं सीहोर जिलों का यह भू-भाग सभ्यता के आरंभ से ही सांस्कृतिक गतिविधियों का प्रमुख केंद्र रहा है।
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    इस क्षेत्र में बिखरे प्रागैतिहासिक स्थल मध्ययुगीन स्मारक मालवा में विकसित स्थापत्य कला एवं प्रतिमा कला की परम्परा को दर्शाते हैं।
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    भोपाल, भोजपुर, भीमबेटका एवं आशापुरी के क्षेत्र की भौगोलिक स्थिति को देखा जाए तो पता चलता है कि यहां एक विशाल जलाशय था। इसे 16वीं सदी में रिक्त किया गया और इसके बाद भूमि कृषि के लिए उपयोग में लाई जाने लगी।